सेवा

कई बार हमारे मन में यह बात आ जाती हैं की हमें ये विशेष सेवा इसलिए दी गई हैं। हम औरो की तुलना में ज्यादा बुद्धिमान, पढ़े-लिखें या फिर ज्यादा बड़े इंसान हैं या हमारे अंदर कोई विशेष योग्यता हैं।
सेवा की जरूरत
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हमें लगता हैं की केवल हम ही इसके हक़दार हैं। ये बात हमारे मन आज जाती हैं और हम गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं।
जबकि सेवा तो सतगुरु का सौगात में दिया हुआ एक अहम् तोहफा हैं। एक ऐसा तोहफा जिसका फैसला केवल गुरु ही कर सकते हैं की किसे, कब, और क्यों देना होता हैं।
सेवा कोई पुरुस्कार नही वो कोई ओहदा नहीं और नहीं सेवा प्रदर्शन करने की कोई चीज हैं। यह तो गुरु की हम पर दया होती हैं। हमें सेवा करने का मौका देता है वरना सेवा करना हर किसी के भाग्य की बात नहीं होती हैं।
देश और विदेश के सभी सत्संग घरो में एक बात आम तोर पर देखने को मिलती हैं। वहाँ पर सेवा का कोई विशेष क्लास देखने को नहीं मिलती। ऊंच -नीच का कोई भाव नहीं होता, ना ही पढ़े -लिखें या पैसे का घमंड।
जज और वकील ट्रैफिक की सेवा करते हुए नजर आ रहे होते हैं।
फौजी अफसर लंगर बर्ताने और बर्तन सफाई की सेवा करते है।
बड़े-बड़े लोग मिट्ठी सिर पर उठा रहे होते हैं। वो भी बहुत प्यार और विनर्म भाव से सभी मिलकर सेवा करते हैं।
यह सब प्यार भरा नजारा देख कर समझ आता हैं की सेवा हमें किसी पद या किसी प्रतिभा के कारण नहीं मिली होती हैं। यह तो उस आत्मा की अंदरूनी विन्रमता, प्रेम और सबसे बड़ा सतगुर की दया से मिलती हैं।
जो भी सेवा हमें सतगुरु के द्वारा बक्शी जाती हैं। उस समय वोही सेवा हमारे लिए जरुरी होती हैं। वह हमारे अंदर प्रेम भावना जगाने, हमारे अंदर छिपे बैठा अहकार, हमारे अंदर श्रद्धा भाव लाने और जीवन को नया आकार देने का काम करती हैं। इसलिए यह जरुरी है सतगुरु हमें जो सेवा की बक्सीश करते हैं। उसे हमें बड़े प्रेम भाव से अपने गुरु की रजा समझते हुए करनी चाइये, क्यूंकि उसी में हमारा भला छिपा होता हैं।
सतगुरु हमें क्या देख कर बक्शिश करते हैं ये एक रहस्य है और सायद हमेशा बना रयेगा। अगर इसे जाना है, तो सतगुरु के बताये रास्ते पर चलते जाओ। सतगुरु एक दिन आपको खुद फील करा देंगे सब कुछ।
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सेवा ना कभी ख़त्म होती है, और ना किसी के लिए रूकती हैं। ना कभी रुकेगी। इसको तो समय निकाल कर करते रहना चाइये।
जो आज थक इसके साथ जुड़ा है और साथ खड़ा रहा। उसका जीवन जरूर बदला हैं।
सेवा असल में क्या हैं?
क्या किसी को पैसे दे देना, खाना खिला देना या कोई और अच्छा काम कर देना ये सब सेवा हैं। बिलकुल नहीं।
जहां कोई भी काम जब प्रेम, विन्रमता और नी:स्वार्थ भाव से किया जाता हैं वो ही असली सेवा होती हैं। या मायने नहीं रकता की काम छोटा किया है या फिर बड़ा।
सच्ची सेवा वोही होती है। जहाँ पर देने वाला भूल जाये।
सेवा अक्सर सभी धार्मिक स्थनों पर चलती रहती हैं। ये भी जरुरी नहीं की सेवा केवल धार्मिक स्थान पर जाकर ही की जा सकती हैं। ऐसा बिलकुल भी नहीं हैं।
सेवा हम कही भी कर सकते हैं। अपने समाज में रहते हुए बस जरुरतमंद की सहायता करना भी सेवा के एक अहम् हिस्सा हैं। सेवा करते टाइम मन में किसी भी तरह का कोई गलता विचार नहीं आना चाइये। जैसे की – सेवा के बदले कुछ इच्छा मन में आना, ना किसी तरह का किसी के धन्यवाद की इच्छा रकना।
सेवा वो नहीं दिखावे के लिए की जाये।
सेवा वो होती हैं जो अंदर से एक प्रेम बहता हो।।
सेवा का भाव
सेवा का भाव सभी लोगो में एक समान नहीं होता हैं। सेवा में ( मैं ) शब्द का अस्तित्व समाप्त हो जाता हैं। क्योंकि वहाँ मैं नहीं रहता वो दुसरो के लिए समर्पित हो जाता हैं। जब हम की मदद कर रहे होते हैं और वहाँ बदले में कोई इच्छा नहीं होती तो वो सेवा का रूप ले लेते हैं। वहाँ पर अहंकार का नाश हो जाता हैं।
तब हम अपने वहम को समाप्त कर रहे होते हैं। वहाँ से शुरू होती है एक नया जीवन की शुरुआत।
वही से हमारे अंदर दयालुता, विन्रमता,अपने सतगुरु व सेवा के प्रति सच्चा प्रेम जागता है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सेवा
सनातन धर्म में कहा गया हैं।
“सेवा तब तक शुद्ध हैं, जब तक वो निरलाभ हैं।”
सेवा हमें फूलों की तरह करनी चाहिए। जैसे फूल बिना कुछ बोले सबको खुश्बू देते हैं।
सेवा इंसान को इंसान से जोड़ थी हैं और आपस में प्रेम भाव को बढ़ाती हैं। सेवा के साथ साथ ध्यान भी करें और भी बेहतरीन रिजल्ट आएंगे।